स्वामी कृष्णानंद जी महाराज का उद्देश्य

आज की तथाकथित प्रगतिशील जीवनशैली मानसिक तनाव में गुजरती हुई दिखाई देती है। अपने असंतोष, आर्थिक एवं मानसिक कष्टों को भुलाने के लिए मानव तमाम तरह की कोशिशें करता है और भोग विकास में अपनी कीमती समय गवाता है। जन साधारण की निराशा, व्यभिचारी-शक्ति संपन्न शासकों की आमदनी का स्त्रोत बनी है। ऐसी स्थिति में जब जन समुदाय असहाय प्रतीत हो रहा है, सदगुरू स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज जैसे विलक्षण क्रांतिकारी ऋषि अत्याचार के विरोध में खड़े होकर लोगों में अध्यात्म के माध्यम से प्राण फूंकने का प्रयास कर रहे हैं। स्वामी जी बिना स्वार्थ के आत्म पद में स्थिर जीवन जीने की कला को जन साधारण तक पहुंचाने में प्रयासरत हैं। इसीलिए उन्होंने सद्विप्र के लिए आत्म मोक्ष हेतु साधना और जगत हित की सेवा के लिए प्रमुख उद्देश्य दिए हैं। इन उद्देश्यों को अपने जीवन में उतारकर प्रत्येक सद्विप्र वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को फैला कर वैश्विक स्थापना में अपना योगदान दे रहे हैं ।

सद्विप्र का अर्थ

सद्विप्र का अर्थ है जो साधक शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के गुणों से युक्त होकर कार्य करें। सद्विप्र अर्थात् स्वयंसेवी के लिए न कोई महान है न ही कोई कार्य छोटा, वे आवश्यक्ता, समय, स्थान के अनुसार एक भंगी से लेकर एक विप्र यानी ब्राह्मण तक का कार्य स्वयं कर ले। जैसे कोई आदमी बीमार है उसको सेवा की जरूरत है, वे स्वयं ही उसका मल-मूत्र तक की सफाई और सेवा करें। रोगी की दवा दारू की व्यवस्था करें। सामने किसी अबला का चीर हरण हो रहा है तो उसकी रक्षा करें। यदि कोई भूखा है तो उसके लिए रोटी का प्रबंध करें। किसी को मुख से साधना के महत्व को समझाते हुए जो भक्ति से जोड़े। इसी को सद्विप्र कहते हैं जो विश्व का प्रत्येक कार्य गुरु गोविन्द की सेवा समझकर हंसते हुए करे। पशु और पक्षी के लिए राष्ट्र का बंधन नहीं तो मानव के लिए क्यों? यह बंधन विश्व मानवता के लिए कलंक है। इस राष्ट्र, सम्प्रदाय, मज़हब, धर्म रूपी सीमाओ को तोड़ना ही होगा विश्व मानव से भाई का भाई से नाता जोड़ना ही होगा। सत्य एक है परमात्मा एक है तो हम अनेक क्यों ?

स्वामी जी द्वारा दी जाने वाली ब्रह्मदीक्षा

स्वामी श्री द्वारा दी जाने वाली दीक्षाओं में से यह बहुत ही विशेष है। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम शक्तिपात होता है। स्वामी श्री शिष्य का सहस्त्रार खोलकर दिव्यास्त्र-देवास्त्रो के साथ मूल बीजमंत्र आरोपित करते है। भीतर से दिव्यास्त्र-देवास्त्र और बाहर से स्वामी श्री द्वारा बताई गई, ध्यान-साधना-संकीर्तन की विधि द्वारा यह बीजमंत्र पुष्पित पल्लवित होता है। मंत्र के पुष्पित पल्लवित होने पर हमारे अंदर और बाहर की स्थिति परिस्थिति बदलने लगती है। जिससे ऊर्जा के क्षय के स्थान पर संचय होने लगता है। श्रदापूर्वक किये गये सुमिरन, सत्संग और सेवा से गुरूत्व रूपी पुष्प और समाधि रूपी फल शिष्य में प्रकट हो जाता है और दिव्यास्त्रों-देवास्त्रों द्वारा साधक की नकारात्मक ऊर्जा-साकारात्मक रूप लेने लगती है। बहुत लोगों को दीक्षा के बाद बुरी आदतें जैसे धूर्मपान, शराब, असमय भोजन, सहज छूट जाती है। जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाता है। अपना सात्विक जीवन व्यतीत करते हैं। समाज में पद, पैसा, प्रतिष्ठा सहज ही प्राप्त करने लगते हैं। सभी चक्रों पर हमारा जन्मोंजन्म से जमा ऊर्ध्वगमन होने लगता है। पात्रता के अनुसार इससे देवी-देवताओं का दर्शन एवं परम शांति का बोध भी होता है। शरीर हल्का होता है। यह बीज दीक्षा है ।