स्वामी कृष्णानंद जी महाराज के द्वारा लिखी गई पुस्तक गुरु ही मुक्तिदाता के बारे में आचार्या पूनम अग्रवाल लिखती है कि, सद्गुरु स्वामी कृष्णानंदजी महाराज की रचनाएं अनमोल हैं। ये वेदों का ही परिष्कृत रूप हैं। वेदों की रचना आज से 6000 ईसा पूर्व हुई है। पहला वेद ऋग्वेद है जिसमें वर्ण व्यवस्था, जाति स्मरण (पुनर्जन्म), बुद्ध पुरुषों-संत पुरुषों का वर्णन तथा देवी-देवताओं की स्तुति की विधि है। ऋग्वेद के ही समकक्ष स्वामी कृष्णानंदजी महाराज द्वारा लिखित ‘मेरे राम’ (कबीर गुरु बसे बनारसि) में वर्ण व्यवस्था, ‘बुद्धों का पथ’ में संतों द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग का वर्णन, ‘उमा कहउँ मैं अनुभव अपना’ में जाति-स्मरण तथा देवी-देवताओं के अतीन्द्रिय दर्शन की विधि बहुत ही सरल ढंग से प्रस्तुत की गई है।
दूसरा वेद है यजुर्वेद। जब देवी-देवताओं की पूजा और कर्मकाण्ड के अंधविश्वास में फंसकर लोग धर्मभीरू हो गए तब उन्हें डर से निकालने के लिए यजुर्वेद की कल्पना हुई। इसमें भगवान को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ-हवन और मंत्रोच्चार द्वारा पूजा की दूसरी विधि दी गई। स्वामीश्री द्वारा लिखित ‘यंत्र-मंत्र-तंत्र रहस्य’ तथा ‘शिवनेत्र’ कृतियां यजुर्वेद का ही सरलीकृत रूप हैं।
तीसरा वेद है सामवेद। जब यजुर्वेद लिखित कठिन मंत्रों का उच्चारण सामान्य मनुष्य के लिए मुश्किल हो गया और यज्ञ का अभीष्ठ फल मिलने के स्थान पर विघ्न-बाधाएं उत्पन्न होने लगीं तब विद्वानों ने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के थोड़े-थोड़े श्लोकों को मिलाकर सामवेद बनाया। इसे सरलता देने के लिए श्लोकों को लयबद्धता प्रदान की गई। स्वामीश्री लिखित ‘लोक परलोक’, ‘रहस्यमय लोक’, ‘शिवनेत्र’ सामवेद के ही समकक्ष कृतियां हैं। ‘लोक परलोक’ में स्वामीश्री ने ऊर्जा के केन्द्रों द्वारा स्वयं अंतर्यात्रा पर निकलने की विधि बताई है। ‘रहस्यमय लोक’ में स्वामीश्री ने स्थूल जगत के साथ-साथ सूक्ष्म जगत के अस्तित्व का वर्णन किया है। ‘शिवनेत्र’ में शिवनेत्र अर्थात् तृतीय नेत्र के कल्याणमूलक कार्यों तथा इसके खोलने की विधि दी गई है।
सामवेद के समय में नरमेघ तथा अश्वमेघ जैसे बड़े-बड़े यज्ञ होने लगे। जिससे लोग भयाक्रान्त हो दिग्भ्रमित हो गए। तब चौथा वेद अथर्ववेद लिखा गया। अथर्ववेद से ही जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, सम्मोहन, ज्योतिष, आयुर्वेद व वास्तु विद्या का प्रादुर्भाव हुआ। अथर्ववेद में जो विधियां हैं ऐसी ही विधियां स्वामीश्री लिखित ‘स्वर से समाधि’, ‘कुण्डलिनी जागरण’ व ‘यंत्र-मंत्र-तंत्र रहस्य’ में भी दी गई हैं। ‘स्वर से समाधि’ में स्वर-साधना द्वारा स्वास्थ्य लाभ, भौतिक तथा आध्यात्मिक जगत में सफलता तथा स्वर द्वारा ज्ययोतिष ज्ञान की विधि दी गई है। ‘कुण्डलिनी जागरण’ में स्वामीश्री द्वारा कुण्डलिनी को सहस्रार तक ले जाने की सरलतम ध्यान-विधि तथा ‘दिव्य गुप्त विज्ञान’ रूपी ध्यान पद्धति जिसमें दिव्यास्त्रों तथा देवास्त्रों का अपने चक्रों पर प्रयोग कर कुण्डलिनी को सहजयोग द्वारा ऊपर उठाने की विधि भी स्वामीश्री ने दी है।
गुरु की स्तुति के बिना अधूरा है धर्मग्रंथ
स्वामी कृष्णानंदजी आज के युग में राजयोग के एकमात्र उत्तराधिकारी हैं। वे हमें राजयोग देकर मुक्ति के मार्ग पर र ले ले जाने आए हैं। ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ इसी कड़ी में उनकी अमृतमयी वाणी का अनमोल संकलन है। जिसे समझने के लिए हमें सबसे पहले स्वयं को, मुक्ति को और सद्गुरु के वास्तविक अर्थ को समझना होगा।
एक छोटे से बीज में सम्पूर्ण वृक्ष छिपा है वैसे ही जैसे दूध में घी। बीज में वृक्ष और दूध में घी साक्षात् दिखाई नहीं देते। बीज से वृक्ष और दूध से घी के प्रकट होने की संपूर्ण प्रक्रिया है। तकनीक द्वारा ही दूध से घी निकाला जाता है। पहले दूध को जामन लगाकर दही में रुपांतरित करते हैं, फिर मथते हैं। मथने पर जो मक्खन प्राप्त होता है उसे गरम करने पर ही घी अस्तित्व में आता है। इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा स्वयं विद्यमान है। गुरु दीक्षा रूपी तकनीक के द्वारा ऊर्जा के असीम स्रोत परमात्मा को शिष्य में प्रकट करता है। वह शिष्य को शरीर से मन, मन से आत्मा तथा आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा कराता है। जैसे बर्फ पानी में और पानी वाष्प में रुपांतरित होकर प्रकृति में विलीन हो जाता है उसी प्रकार गुरु के सान्निध्य में साधना द्वारा मनुष्य स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से आत्मशरीर में वाष्पीकृत हो परमात्मस्वरूप को प्राप्त होते हैं।
मन शरीर और आत्मा के बीच पुल की तरह है। जब यह शरीर के स्तर पर होता है तो मरकट की तरह नचाता है। कभी सुखी तो कभी दुःखी करता है। जब मन आत्मा के स्तर पर जाता है तो आनंद में डूबकर अमन हो जाता है। मन की शरीर से आत्मा तक की यात्रा ही मुक्ति की यात्रा है। यही यात्रा कराने निर्गुण निराकार परमात्मा स्वयं सद्गुरु का रूप धारण कर आता है। वही स्थूल और सूक्ष्म रूप धरकर मन के एक-एक बंधन से छुड़ाता है। इसीलिए गुरू ही मुक्तिदाता है। यही गीता का सार है। यही वेद-पुराणों का निष्कर्ष है। तभी तो धर्मग्रन्थों में चाहे रामायण हो या हनुमान चालीसा, गुरु की ही स्तुति-वंदना सर्वप्रथम की गई है।
गुरु ही मुक्तिदाता
राम कृष्ण से को बड़ा, वे भी तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन ।।
गुरु के तो चरण-स्पर्श मात्र से ही शिष्य का उद्धार हो जाता है। शिष्य श्रद्धा-प्रेम से जब गुरु के चरण दबाता है तो गुरु के शरीर से अनायास ही ऊर्जा का निःसरण होता है जो शिष्य के हाथों के माध्यम से प्रवेश कर उसके जन्म-जन्मान्तरों के मल को जो उसके दुःख का कारण है विसर्जित कर देती है। जिसके विसर्जित होते ही उसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है। अन्दर से कुण्डलिनी ऊर्जा बाहर से गुरु की ऊर्जा की वर्षा उसे परमात्म स्वरूप तक ले जाती है।
जिसके चरण स्पर्श मात्र से हम बंधन मुक्त हो जाएं ऐसा समर्थ सद्गुरु भगवत् कृपा से ही मिलता है। वही समय का सद्गुरु कहलाता है। ‘सद्विप्र समाज’ के संस्थापक स्वामी कृष्णानंदजी महाराज ही आज के समय के सद्गुरु हैं। गुरु तो अनेकों होते हैं। पर एक समय में केवल एक ही सद्गुरु होता है। यह संकलन स्वामीश्री के बहुआयामी व्यक्तित्व की एक झलक भर है। स्वामीश्री ने इस संकलन में मनुष्य के बंधन, उनके कारण और उनसे निकलने के उपाय की बड़ी ही सूक्ष्म और विस्तृत विवेचना की है। जिस प्रकार समुद्र को प्याले में नहीं भरा जा सकता उसी प्रकार केवल इस पुस्तक के माध्यम से उनकी सामर्थ्य को, क्षमता को वर्णित नहीं किया जा सकता। अनुभव ही एकमात्र उपाय है। गुरु पूर्ण होता है और शिष्य अपूर्ण। अपूर्ण पूर्ण का संपूर्णता से आकलन नहीं कर सकता। मैं भी शिष्य हूँ और श्रीगुरुदेव के विषय में मेरा कुछ भी कहना सूर्य को चिराग दिखाने के समान ही है। पर इतना जरूर कहूंगी कि एक बार फिर कृष्ण का आगमन हुआ है। हृदय में श्रद्धा और प्रेम के साथ जैसे ही आप उनके चरणों में नतमस्तक हो जाओगे उनको पहचान जाओगे।
संध्या होने पर आप बल्ब, दीपक जलाते हैं लेकिन सूर्य के आने पर आप दीपक जलाते हो क्या? अपना दीपक स्वयं बन जाओ। एक बार फिर सूर्य आपको अपने प्रकाश से प्रकाशित करने आया है। यह संकलन तो एक माध्यम भर है आपको मार्ग दिखाने का, उस सूर्य का पता बताने का |