दिव्य गुप्त विज्ञान (DSS) PART- 1

भगवान कृष्ण के प्रति मीरा का समर्पण, अपने सच्चे शिष्य के प्रति एक गुरु या ऋषि का समर्पण और अपने शरीर की 7 ग्रंथियों से सात चक्रों को जागृत करना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है.  यह एक ऐसा विज्ञान है और ऐसी साधना जो आपके पूरे जीवन को बदलने की क्षमता रखती है. दिव्य गुप्त विज्ञान को सद्गुरु स्वामी कृणानंद जी महाराज ने अपने गुरु की अनुकंपा से प्राप्त किया और अब अपने शिष्यों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं.

मीरा के समर्पण से क्या ‘DSS’ का कनेक्शन ?

राजस्थान में मीरा हुई थी. जो कृष्ण की दीवानी थी उन्हें मारने के लिए उनके परिवार के लोगों ने तमाम तरह के प्रयोग किए. सबसे पहले उन लोगों ने जहर दिए, जिसे मीरा ने कृष्ण को अर्पित कर पी गई. इसके बाद विषधर नाग छोड़ा गया हालांकि वो भी मीरा के चरणों में बैठ गया. वह अपने गुरु रविदास के प्रति पूर्ण समर्पित थी. जिनका प्रत्येक शब्द उन्होंने ब्रह्म वाक्य की तरह अपने जीवन में उतार लिया था. वे महीनों भोजन नहीं करती थी, लेकिन कृष्ण के भजन भाव में लगी रहती थी, अंत में उनका भतीजा मीरा को बर्दाश्त नहीं कर सका और मीरा राज्य छोड़कर अपने आराध्य के यहां वृंदावन चली गई. वृंदावन में जमुना तट पर मीरा ने आश्रय लिया जहां जीव स्वामी नाम के ब्रह्मचारी महात्मा रहते थे. मीरा उनके आश्रम में गई लकिन उनके शिष्यों ने कहा कि यहां स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है. मीरा ने सहज स्वर में कहा- क्या कृष्ण को छोड़कर यहां दूसरा भी कोई पुरुष है, मैं तो समझती थी कि वृंदावन में मात्र कृष्ण ही पुरुष है और सब नारी है… जीव स्वामी, मीरा की यह बात सुन कर उनके चरणों में गिर गए.

कुछ समय बाद मीरा अपने प्रियतम के राज्य द्वारिका पुरी चली गई. लेकिन जैसे ही उन्होंने वृंदावन छोड़ा राज्य पर दुखों का पहाड़ टूटने लगा. इसको लेकर राजा ने अपने मंत्रियों-ब्राह्मणों के साथ विचार-विमर्श किया और सभी ने कहा मीरा साक्षात् लक्ष्मी थी जिनके साथ स्वयं नारायण रहते थे. आपने अपनी प्रतिष्ठा को देखकर कटु वचन का प्रयोग किया. जिसकी वजह से लक्ष्मी नारायण रूष्ट होकर चले गए. अंत में पंडितों की टोली मीरा को लेने वृंदावन के बाद द्वारिका पहुंची. जहां मीरा ने कहा मैं अपने प्रियतम के घर आई हूं इसलिए उनसे पूछने के बाद ही लौटूंगी. मीरा अपने प्रियतम से पूछने के लिए द्वारिकाधीश के मंदिर में गई और कृष्ण की मूर्ति के सामने नृत्य करने लगी. मीरा नृत्य करते करते भजन भाव के साथ एकाएक दौडते हुए कृष्ण के मुंह में प्रवेश कर गई. ब्राह्मण समाज ये देखते रह गया और अंत में उन्हें मात्र एक आंचल ही हाथ लगा, जिसे चितौड़ ले जाया गया और इसी आंचल को महाराणा प्रताप के मुकुट को बांधा गया जो मीरा के पोते थे. आज भी विज्ञान के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि मीरा अपने शरीर के साथ कृष्ण की मूर्ति में कैसे प्रवेश कर गई. ये जो विज्ञान की उलझन है और जहां  भौतिक विज्ञान की सोच अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचती है, वहीं से गुप्त विज्ञान की शुरुआत होती है.

‘DSS’ को लेकर क्या कहता है विज्ञान ?

सेक्रेड सांइस को लेकर विज्ञान का मानना है कि हमारे शरीर के संस्थान 7 ग्रंथियों से जुड़े हैं, ये सभी ग्रंथियां मटर के दाने के बराबर होती हैं, जो हमारे शरीर से सात चक्रों से जुड़ी रहती है. जब हम ध्यान करते हैं तो हमारी बिखरी ऊर्जा एकत्रित होने लगती है फिर एकत्रित होकर ऊपर की ओर जाने लगती है. ऊर्जा को एकत्रित करने के लिए शरीर का स्थिर होना जरूरी है ताकि विचारों की लहरों को स्थिर किया जा सके. इसके लिए हम आसन और प्राणायाम का सहारा लेते हैं. ताकि ध्यान साधना के दौरान हम अपने मन को निष्क्रिय करने में सफल हो सकें. जैसे ही हम विचारहीन हो जाते हैं वैसे ही हमारे मन में पुराने संस्कार और कर्म बंधन टूटने लगते हैं, हम आत्म प्रकाश में स्थित हो जाते हैं. मन के दैविक गुण जैसे धैर्य, सन्तोष, सहिष्णुता व प्रेम जाग जाते हैं और इस संसार में ही स्वर्ग दिखने लगता है. अपने शरीर की 7 ग्रंथियों के माध्यम से सात चक्रों को जागृत कर हर परिस्थिति में आनन्द और सुखमय रहना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है.

दिव्य गुप्त विज्ञान की उत्पति

भारतीय ऋषि इस विज्ञान के आविष्कारक है. ऋषि याज्ञवल्क्य के आश्रम में इस दीक्षा को प्राप्त करने के लिए कई मुनियों ने डेरा डाले थे तो वहीं ऋषि विश्वामित्र ने इस विज्ञान की तुलना गोमुख से की. जिसके सहारे उन्होंने बारह सालों के अकाल से संघर्ष किया और वर्षा से लोगों के जीवन में खुशहाली लाई. धीरे धीरे वे अस्त्र-शस्त्र विद्या,  अपरा विद्या, खेचरी विद्या, अष्ट सिद्धि,  नव निधि जैसे सभी विद्याओं के जानकार बन गए. जिसे उन्होंने राम में हस्तांतरित करने का काम किया.

दिव्य गुप्त विज्ञान के रहस्य

इस विद्या का एक रहस्य गुरुत्व भी है. अर्थात जैसे ही शिष्य को पूर्ण शिष्य बनना है तो गुरु स्वयं उस विद्यार्थी में खुद को समाहित कर लेगा. जैसे गुरु नानक देव, अंगद देव में प्रवाहित हुए थे वैसे ही यह विद्या भी गुरु शिष्य के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होती रहती है. यह एक ऐसी विद्या है जिसका पूर्णत : प्रयोग ऋषि मुनियों ने ही किया. क्योंकि देव संस्कृति बिना पात्रता का विचार किए ही अपने शिष्यों का वरदान देते आए हैं. इसलिए राक्षस और देव संस्कृति में इसका पूर्ण सदुपयोग नहीं हुआ है. जैसे भगवान शंकर ने शीघ्र ही प्रसन्न होकर भस्मासुर को वरदान दिया अर्थात् गुप्त विज्ञान प्रदान किया. वह कामासक्त होकर अपने गुरु यानी भगवान शिव की पत्नी पार्वती पर मोहित हो गया और उन्हें पाने के लिए भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा. अंत में शंकर जी को भागना पड़ा. लेकिन भगवान विष्णु ने इसी विद्या के सहारे मोहिनी रूप ग्रहण किया. फिर भस्मासुर को उसी विद्या से भस्म किया.

भगवान शंकर औघड़ दानी है. वे केवल देना जानते हैं, बदले में गुरु दक्षिणा नहीं लेते हैं, जिससे राक्षस उनके शिष्य बने. रावण, मेघनाद, कुंभकरण, स्वर्णरेखा, बाणासुर, महिषासुर जैसे राक्षस शंकर जी के भक्त बने. जो इस पृथ्वी को अपनी गुप्त विद्या से स्वर्ग बना सकते थे लेकिन वे भ्रष्टाचार के दलदल में फंस गए जहां से संपूर्ण मानवता ही कराहने लगी. देवराज इंद्र को भी ज्ञान उनके गुरु बृहस्पति ने ही प्रदान किया था. लेकिन उनके अंदर इतना अहंकार हो गया कि वे अपने गुरु के आगमन पर खड़ा होना उचित नहीं समझा. जिसका खामियाजा इंद्र को आज भी अपनी बदनामी को लेकर उठानी पड़ती है. 

भगवान कृष्ण के प्रति मीरा का समर्पण, अपने सच्चे शिष्य के प्रति एक गुरु या ऋषि का समर्पण और अपने शरीर की 7 ग्रंथियों से सात चक्रों को जागृत करना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है, जिसे सद्गुरु स्वामी कृणानंद जी महाराज ने अपने गुरु की अनुकंपा से प्राप्त किया और अब अपने शिष्यों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं.