धर्म और सम्प्रदाय को लेकर हमेशा हमारे समाज में बहस छिड़ती हुई दिखाई देती है. आए दिन इन मुद्दों को लेकर तमाम तरह की बातें भी की जाती है लेकिन कोई भी इसकी वास्तविक परिभाषा नहीं बताता. आज हम आपको धर्म के उस वास्तविक मतलब को बतलाएंगे, जिसे सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ने अपनी किताब ‘उमा कहउं मैं अनुभव अपना’ में बताया है. अपनी आत्मा को जानने के लिए जो भी हम करते हैं, वह धर्म है. धर्म आकाश की तरह अनन्त, असीम और स्वतंत्र है.
धर्म को लेकर क्या कहते हैं सद्गुरु ?
सद्गुरु, धर्म को लेकर लिखते हैं कि हम धर्म को उदाहरणों के द्वारा नहीं समझा सकते, फिर भी इशारा करना हमारा कर्तव्य है. अपनी आत्मा को जानने के लिए जो भी हम करते हैं, वह धर्म है. धर्म आकाश की तरह अनन्त, असीम और स्वतंत्र है. इसे सीमित करना हमारा दुस्साहस होगा. क्योंकि हम मठ मंदिर बनाकर अपनी व्याख्याओं को अपनी इच्छाओं के अनुरुप प्रस्तुत करते हैं, और धीरे धीरे हम इसको अपना अधिकार भी समझने लगते हैं. इसके बाद हमें अहंकार होने लगता है और जैसे ही कोई अपनी बातों से या किसी भी तरीके से इस पर आघात करता है तो यह अहंकार धधक उठता है. किसी की इच्छाओं से उत्पन्न एक कमरे के रूप में सिमित ये जो धर्म है उसे ही सम्प्रदाय कहते हैं. जिससे घृणा, तिरस्कार और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है. लेकिन कोई सम्प्रदाय, धर्म का रूप धारण नहीं कर सकता क्योंकि इसे सिमित नहीं रखा जा सकता है बल्कि ये आकाश की तरह अनंत है.
सम्पदाय से धर्म पर क्या पड़ा प्रभाव ?
धर्म, सम्प्रदायातीत है अर्थात इसका प्रभाव आज से नहीं बल्कि आज से करीब कई हजार सालों से देखने को मिलता है. इन्हीं प्रभावों को लेकर सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि आज से ढाई हजार साल पहले धर्म, दर्शन और योग एक जैसे ही थे. लेकिन ईसा से तीसरी-चौथी शताब्दी में दर्शन और योग स्वतंत्र रूप से जन्म लेने लगे. पांचवीं-छठी शताब्दी तक दर्शन और योग मुख्य हो गए और धर्म गौण होकर केवल आचारण, नियम के रूप में रह गया, क्योंकि इसके दर्शन और ज्ञान रूपी पंख काट दिए गए जिससे ये पंखहीन हो गया और पंडित, विद्वानों के चक्कर में बुरी तरह से फंस गया. दर्शन और ज्ञान से अलग होने के बाद अब यह धर्म कुछ कथित विद्वानों के चक्कर में कथित क्रियाओं और कर्म काण्डों का पुलिन्दा बनकर रह गया है. इसके अलावा अब वाक्-शक्ति यानी बोलने की जो शक्ति है उसका प्रभाव भी खूब देखने को मिलता, जिसके पास जितना कम ज्ञान है वो उतनी ही ऊंची आवाज में धर्म को लेकर अपनी बात रखता है. इसके पीछे की वजह प्राचीन समय में की गई वो गलत व्याख्या और गलत कायाकल्प है जिसे कुछ लोगों ने अपने फायदे के लिए बताया और धर्म का यही कायाकल्प संप्रदाय का रूप ले लिया. दरअसल, प्राचीन समय में कुछ विद्वानों ने यज्ञ और कर्मकांडों का खूब प्रसार प्रचार किया, ये वही लोग है जिनकी वजह से समाज में कई प्रकार के सम्प्रदाय का विकास हुआ क्योंकि इन लोगों ने अपने समय के राजा को अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल कर ली और संप्रदाय धीरे-धीरे उस राज्य का धर्म बनता गया. आज इसी का परिणाम है धर्म और संप्रदाय के आधार पर ही राज्य संस्था और समाज संस्था का गठन हो रहा है.
क्या होता है धर्म का वास्तविक मतलब ?
धर्म- सम्प्रदाय के बारे में बताते हुए सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज एक और तथ्य हम सबके सामने रखते हैं. जिसमें वह कहते हैं कि हमारे मानव तन के अंदर एक आत्मा रहती है, जिसको देखना, जिसे जानना और उस आत्मा के चरित्रार्थ के लिए कर्म करते रहना ही धर्म के अंग हैं. अर्थात धर्म का मतलब अपनी बातों को समाज के ऊपर थोपना और अपनी परंपरा को सर्वश्रेष्ठ बताना नहीं बल्कि खुद की वास्तविक्ता की पहचान कर उसके चरित्र के निर्माण के लिए किए गए कार्यों से होता है. जैसे गीता में भगवान कृष्ण, अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन ! व्यक्ति को जो चाहिए, जिसको वो पाना चाहता है. उस प्राप्ति के लिए किए गए कर्म ही उस व्यक्ति के वास्तविक धर्म होते हैं. अर्थात व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो जो कर्म करता है वही उसका धर्म है. जैसे वचन से बंधे भीष्म अपने कर्तव्यों के पालन को ही धर्म समझते हैं ठीक वैसे ही तुम्हारा भी इस रण भूमि में क्षत्रिय कर्म करते हुए निष्काम भाव से युद्ध करना ही धर्म है.
भागवत गीता में कृष्ण के उपदेश और सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज द्वारा लिखी गई ये बातें ये बतलाती है कि, धर्म कोई वस्तु या परंपरा नहीं बल्कि अपने चरित्र के निर्माण के लिए किए गए कर्मों की श्रृंखला है, जिसे कोई समाज या कोई व्यक्ति किसी के ऊपर थोप नहीं सकता.