आज दुनिया युद्ध के सिरआने पर खड़ी है. जहां देखों वहां युद्ध की आहट सुनाई दे रही है. ऐसे ही संघर्षों को देखते हुए सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ने अपनी किताब ‘गीता ज्ञान मंदाकिनी’ में लिखते हुए ये बताया है कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं बल्कि समाजिक विद्रोह का हथियार है, जो पहले से जल रही आग में घी डालने का काम करता है क्योंकि युद्ध के बाद से जो परिणाम निकलते हैं उससे हानि कुछ दायरे में नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर होता है.
गीता ज्ञान मंदाकिनी में युद्ध की व्याख्या
युद्ध से निलकने वाले परिणामों के बारे में बताते हुए सद्गुरु कहते हैं. गीता में अर्जुन को ज्ञान देने वाले भगवान कृष्ण न हिंसक है न अहिंसक, न शुभ है न अशुभ. बल्कि ये दोनों एक ही स्वप्न के हिस्से हैं. अच्छे और बुरे दोनों आदमी को हिंसा और अहिंसा का सपना आता है. लेकिन जो व्यक्ति इस सपने के अनुभव को समझ पाता है वही सत्य के ज्ञान को प्राप्त हो जाता है. सद्गुरु आगे लिखते हैं कि युद्ध में जो हिंसा होती है वो किसी नाटक में लड़ी गई लड़ाई नहीं बल्कि सत्य घटना होती है. जिसमें इतना रक्तपात होता है कि इससे मानवीय जीवन अस्त – व्यस्त हो जाता है. इसलिए हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने युद्ध को रक्तपात का प्रतीक मान लिए और अहिंसा के मार्ग को अपना लिया. इसके अलावा युद्ध की आहट अशुभ होने का प्रतीक है इसके बावजूद भी आज दुनिया के कई देश एक दूसरे को तबाह करने में लगे हुए हैं. गीता ज्ञान मंदाकिनी, सद्गुरु के द्वारा लिखी गई ऐसी किताब है, जिसमें स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ने युद्ध क्षेत्र में अर्जुन और गीता के संवाद को बखुबी भावार्थ के साथ समझाने की कोशिश की है.
युद्ध को लेकर कृष्ण ने अर्जुन को क्या समझाया ?
कुरुक्षेत्र में भगवान कृष्ण की बातों को वर्णित करते हुए सद्गुरु लिखते हैं कि रण भूमि में अर्जुन से श्री कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि हिंसा ठीक है. बल्कि वे इसे गलत बताते हुए कहते हैं कि युद्ध किसी भी वजह से हो उसका परिणाम दर्दनाक होता है. इसलिए जैनों ने इन्हें नरक में डाल दिया. भगवान कृष्ण का व्यक्तित्व अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न हैं. इसलिए युद्ध के मुहाने पर खड़े देशों की छाती कांप उठेगी जब वे भागवद्गीता के प्रसंग को समझने की कोशिश करेंगे, क्योंकि कृष्ण कहते हैं कि युद्ध करने वाले व्यक्ति एक सपने में जी रहा होता है, जिसके आगे हो रहा रक्तपात महसूस नहीं होता. वह दयाहीन हो जाता है और उसके विनाश के लिए मृत्यु उसके जीवन के दरवाजे पर खड़ी होती है. अजुर्न से कृष्ण आगे कहते हैं कि युद्ध करने की नीति धर्म नहीं है. लोग इस नीति को धर्म समझने का भ्रम पाले हैं. नीति एक सामाजिक घटना और कामचलाऊ व्यवस्था होती है क्योंकि जैसे ही यह समाज बदलेगा वैसे ही नीति बदल जायेगी. इस नीति के तहत कल जो ठीक था, आज गलत हो जाएगा. लेकिन धर्म शाश्वत है और युद्ध लड़ना कभी धर्म नहीं हो सकता.
यह आज के समाज के लिहाज से युद्ध की व्याख्या है जिसे कुछ देश और कुछ लोग नीति नहीं बल्कि अपना धर्म मानकर चल रहे हैं, लेकिन सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज द्वारा युद्ध को लेकर लिखा गया यह प्रसंग यह बताता है कि युद्ध रक्तपात का एक ऐसा हथियार है जिसे धर्म मानकर नहीं बल्कि नीति के तहत चलाया जाता है.