ऋषि जाजली को क्यों नहीं मिल पा रहा था धर्म का ज्ञान ?

अध्यात्म से जुड़े इस संसार में लोग जितना ध्यान पूजा पाठ कराने वाले पंडितों पर देते हैं। उतनी ही ध्यान उन तपस्वियों पर देते हैं जिनको लेकर सदियों से कुछ के मन में यह धारणा बैठ गई है कि- संन्यासियों का कोई घर नहीं होता है, उन्हें किसी सभ्यता या संस्कृति से वास्ता नहीं होता, कुछ लोग ये भी मानते हैं कि संन्यासी जीवन जंगली पशु के समान होता है, जो जंगलों में रहना और खाना पसंद करते हैं, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि संन्यास धारण करने में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि साधना में लीन रहने और धर्म के मार्ग को अपनाने के लिए जंगल में रहकर ही तप करना जरूरी होता है।

सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज अपनी किताब बुद्धों का पथ में पंडित जाजली की कहानी बताते हैं। वह कहते हैं कि

आज के काल्पानिक संन्यासियों के चलते दुनिया इतनी कुरूप नजर आ रही है। कुछ लोग संन्यासी जीवन को जंगली जानवरों के जीवन से जोड़कर देखने लगे हैं। संन्यासी जीवन को समझना है तो आप पंडित जांजली के जीवन से समझ सकते हैं। जो धर्म के ज्ञान और प्रभु के दर्शन को पाने के लिए दिन-रात तप किया करते थे। लेकिन उन्हें उनके प्रभु के दर्शन एक दुकान चलाने वाले बनिए के सानिध्य में आकर प्राप्त हुआ।

ऋषि जाजली ने कैसे की थी घोर तपस्या ?

पंडित जाजली एक संन्यासी थे। जिनके पिता बहुत बड़े कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। जाजली को लगता था कि उन्हें समाज की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए समाज से भिक्षा लेकर अपना पेट भरना स्वाभिमान समझते थे। समाज के भी तथाकथित धर्मभीरु लोग, जिनकी संख्या ज्यादा थी, पुण्य के लोभ से जाजली को दान देना अपना कर्तव्य समझते थे। हालांकि लोगों के बीच जाजली का डर इतना था कि कोई उनसे बात करने के बारे में भी नहीं सोचता। जाजली के अंदर धीरे धीरे तपस्या का अहंकार होता गया। वह अपने तप में इस कदर अंधे हो गए कि उन्होंने भोजन करना बंद कर दिया और केवल कंदमूल, फल-फूल के सहारे अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

एक ही जगह पर तप करने की वजह से धीरे-धीरे इनकी प्रतिष्ठा बढ़नी शुरू हो गई। लेकिन बढ़ते यश के साथ उनके शरीर पर दमन का चक्र बनना भी शुरु हो गया। कुछ समय में वह केवल एक ही जगह खड़े होकर तप करना शुरू कर दिए। ऐसे तप को देख लोग उन्हें खड़ेशरी बाबा के नाम से भी पुकारने लगे। चारों तरफ गुणगान होने लगा, लोगों की भीड़ जुटने लगी। लोग उनसे बातचीत तो करना चाहते थे लेकिन जाजली अपने तप में मग्न रहते। धीरे-धीरे उन्होंने शरीर का एक-एक वस्त्र त्याग दिया। केवल एक लंगोट पहनकर मौसम की मार को सहने लगे। रात में जैसे ही सर्दी पड़ती वैसे ही वह कांपने लगते और सोचते कि। हे भगवान! तू क्या अब भी हमारे तप से प्रसन्न नहीं है ?

ऋषि जाजली को लेकर कैसी भविष्यवाणी हुई ?

जाजली के मन की धैर्यता धीरे-धीरे टूटने लगी थी। प्रभु के दर्शन के इंतजार के बीच उनके बालों पर घोंसला बन गया था। जिस पर कुछ पक्षियों ने अंडा भी दिया था। इसके बावजूद भी जाजली अपनी घोर तपस्या से उठने वाले नहीं थे। इसी बीच परेशान जाजली को देख प्रभु की आकाशवाणी हुई.

एक वैश्य ने कैसे दिया ऋषि जाजली को धर्म का ज्ञान ?

आकाशवाणी को सुन पंडित जाजली गंगा में स्नान किए और काशी की ओर चल दिए। काशी में उन्हें तुलाधार वैश्य से भेंट हुई जो एक दुकान में अपने परिवार के साथ बैठे हुए थे। तुलाधार वैश्य को देख पंडित जाजली हैरान हो गए। वह सोचने लगे कि जिस प्रभु के दर्शन के लिए मैंने दिन-रात बिन खाए तप किया। क्या उनसे भेंट एक परिवार के साथ रहने वाला इंसान करा सकता है। हालांकि, जैसे जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे जाजली तुलाधार वैश्य से घुलते गए। अंत में तुलाधार वैश्य ने कहा कि-

“हे मुनिवर ! आपको घबराने की जरूरत नहीं है। मैंने भी यह ज्ञान अपने सद्गुरु से प्राप्त किया है। जो यह बतलाते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति बिन खाएं पिए एक जगह खड़े रहकर और तप करने से नहीं बल्कि एक समय के सद्गुरु के सानिध्य से होता है” 

तुलाधार वैश्य की बातों को सुनते-सुनते पंडित जाजली ध्यान में चले गए। उनका चेहरा दिव्य आभा से घिर आया और अंत में उन्हें एक आध्यात्मिक किरण दिखाई देने लगी। जो धर्म के ज्ञान की राह की ओर ले जा रही थी।