धर्मो रक्षति रक्षित:
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खेचरी मुद्रा योगसाधना की एक मुद्रा है। इस मुद्रा में चित्त एवं जिह्वा दोनों ही आकाश की ओर केंद्रित किए जाते हैं जिसके कारण इसका नाम ‘खेचरी’ पड़ा है इस मुद्रा की साधना के लिए पद्मासन में बैठकर दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है। इस स्थिति में चित्त और जीभ दोनों ही ‘आकाश’ में स्थित रहते हैं, इसीलिये इसे ‘खेचरी’ मुद्रा कहते हैं। इस साधना से मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता। इसके लिये जिह्वा को बढ़ाना आवश्यक होता है। जिह्वा को लोहे की शलाका से दबाकर बढ़ाने का विधान पाया जाता है। योगकुंडली उपनिषद् में कहा गया है
मृत्युव्याधिजराग्रस्तो दृष्ट्वा विद्यामिमां मुने।
बुद्धि दृढतरां कृत्वा खेचरी तु समभ्यसेत्।।
जो प्राणी जीवन और मृत्यु में फँसा है जिसे उस परमज्योति का ज्ञान नहीं है अगर वह मन में संकल्प करके खेचरी विद्या का अभ्यास करे।
गुरूपदेशलभ्यं च सर्वयोगप्रसिद्धिदम्।
यत्तस्य देहजा माया निरुद्धकरणाश्रया।।
गुरु के द्वारा विधिवत् उपदेश लेकर इस मंत्र का जप करने से यह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है। इस मंत्र का प्रतिदिन द्वादश बार जप करने से देह में स्थित माया का स्वप्न में भी प्रभाव नहीं पड़ता। इस मंत्र का जो नियमपूर्वक पांच लाख बार करता उस व्यक्ति की खेचरी स्वयमेव सिद्ध हो जाती है तथा उसके जीवन के सभी विध्न समाप्त हो जाते हैं एवं उसे देवताओं की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
न रोगो मरणं तन्द्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा।
न च मुर्छाभवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्।।
जो खेचरी मुद्रा को सिद्ध कर लेता है उसे रोग, मरण, तन्द्रा, निद्रा, भूख, प्यास तथा मुच्छल आदि भी नहीं कष्टों का आभास नहीं होता है।
खेचरी साधना के अभ्यास से शरीर का इम्यूनिटी सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है।
इसके प्रयोग से मेटाबालिज्म इंप्रूव होते हैं जिससे पेट के रोग नष्ट हो जाते हैं और हम अपनी भूख-प्यास पर नियंत्रण भी कर पाते हैं |
जिन लोगों को मुंह से बदबू आने की दिक्कत होती है, उनके लिए यहमुद्रा फायदेमंद है।
सेक्रेड सांइस को लेकर विज्ञान का मानना है कि हमारे शरीर के संस्थान 7 ग्रंथियों से जुड़े हैं, ये सभी ग्रंथियां मटर के दाने के बराबर होती हैं, जो हमारे शरीर से सात चक्रों से जुड़ी रहती है । जब हम ध्यान करते हैं तो हमारी बिखरी ऊर्जा एकत्रित होने लगती है फिर एकत्रित होकर ऊपर की ओर जाने लगती है। ऊर्जा को एकत्रित करने के लिए शरीर का स्थिर होना जरूरी है ताकि विचारों की लहरों को स्थिर किया जा सके। इसके लिए हम आसन और प्राणायाम का सहारा लेते हैं ताकि ध्यान साधना के दौरान हम अपने मन को निष्क्रिय करने में सफल हो सकें । दोस्तों जैसे ही हम विचारहीन हो जाते हैं वैसे ही हमारे मन में पुराने संस्कार और कर्म बंधन टूटने लगते हैं, हम आत्म प्रकाश में स्थित हो जाते हैं। मन के दैविक गुण जैसे धैर्य, सन्तोष, सहिष्णुता व प्रेम जाग जाते हैं और इस संसार में ही स्वर्ग दिखने लगता है । अपने शरीर की 7 ग्रंथियों के माध्यम से सात चक्रों को जागृत कर हर परिस्थिति में आनन्द और सुखमय रहना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है।
इस विद्या का एक रहस्य गुरुत्व भी है अर्थात जैसे ही शिष्य को पूर्ण शिष्य बनना है तो गुरु स्वयं उस विद्यार्थी में खुद को समाहित कर लेगा जैसे गुरु नानक देव, अंगद देव में प्रवाहित हुए थे वैसे ही यह विद्या भी गुरु शिष्य के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होती रहती है। यह एक ऐसी विद्या है जिसका पूर्णत : प्रयोग ऋषि मुनियों ने ही किया क्योंकि देव संस्कृति बिना पात्रता का विचार किए ही अपने शिष्यों का वरदान देते आए हैं इसलिए राक्षस और देव संस्कृति में इसका पूर्ण सदुपयोग नहीं हुआ है। जैसे भगवान शंकर ने शीघ्र ही प्रसन्न होकर भस्मासुर को वरदान दिया अर्थात् गुप्त विज्ञान प्रदान किया वह कामासक्त होकर अपने गुरु यानी भगवान शिव की पत्नी पार्वती पर मोहित हो गया और उन्हें पाने के लिए भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा अंत में शंकर जी को भागना पड़ा लेकिन भगवान विष्णु ने इसी विद्या के सहारे मोहिनी रूप ग्रहण किया फिर भस्मासुर को उसी विद्या से भस्म किया।
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