धर्मो रक्षति रक्षित:

ज्ञान, कर्म, भक्ति और योग को परिभाषित करने वाले श्रीमद्भागवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है। जिसमें धर्म और अर्धम की व्याख्या की गई है। इस शास्त्र में कौरव और पांडवो के साथ कुरुक्षेत्र के वो खूनी दृश्य भी शामिल है। जहां से गीता के श्लोकों की उत्पति होती है। इन्हीं श्लोकों में एक वाक्य है।
“धर्मो रक्षति रक्षितः”

जब पितामह भीष्म ने किया युद्ध का शंखनाद –

धर्म के वास्तविक अर्थ को बताने वाले श्लोक ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ को समझना है तो आप महाभारत के एक प्रसंग से समझ सकते हैं। जब पितामह भीष्म युद्ध का उद्घोष करते हुए शंख बजाते है और दुर्योधन का हृद्य उल्लास से भर उठता है। उसे इस बात की खुशी होने लगती है कि, अब भीष्म पितामह कुछ कर दिखाएंगे। दुर्योधन का ये रवैया युद्ध प्रेमी की ओर इशारा करता है, जो एक पशु के अंदर होता है। जैसे किसी जंगल में शेर की दहाड़ सुनाई देती है वैसे ही दूसरे पशु किसी बड़े युद्ध की आहट को समझ लेते हैं। चूंकि पितामह सेनापति है। शंख बजाकर युद्ध का आह्वान करते हैं, लेकिन कृष्ण की ओर कोई शंखनाद नहीं किया जाता। महामहिम भीष्म जानते हैं कि, पांडव युद्ध के पक्ष में नहीं है। फिर भी वह दुर्योधन को खुश करने के लिए जंग का आह्वान करते हैं।

पितामह भीष्म ने क्यों दिया अधर्म का साथ ?

हम सभी को पता है, पितामह भीष्म के जैसे महाभारत में शायद ही कोई वीर, विरक्त, ब्रह्मचारी और त्यागी होगा। लेकिन एक श्रेष्ठ पुरुष होने के बाद भी वह धर्म की स्थापना में चुक गए। वह चाहते तो दुर्योधन को बंदी बनाकर धर्म की स्थापना में श्री कृष्ण का साथ दे सकते थे। लेकिन शायद उन्होंने अपने वचन की मर्यादा रखते हुए अधर्म का साथ देना चुना। जो किसी भी सूरत में धर्म को परिभाषित नहीं करता है।

पितामह भीष्म को लेकर क्या कहते हैं स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ?

महाभारत से जुड़े प्रसंग को लेकर सद्गुरु अपनी किताब ‘गीता ज्ञान मंदाकिनी’ में लिखते हैं कि… भीष्म पितामह के पास इच्छा मुत्यु का वरदान था, जो उनकी माता गंगा से मिला था। वहीं दोर्णाचार्य के हाथों में जब तक अस्त्र है उन्हें कोई मार नहीं सकता था। लेकिन ये सभी वीर आज कहां हैं। यहां तक कि, कृपाचार्य और अश्वत्थामा को लेकर भी कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं मिलता है। जिन्हें महाभारत में अमर बताया गया है। हालांकि इसके विपरीत पांडवों ने कष्ट सहने के बाद भी कभी धर्म का साथ नहीं छोड़ा। वह 12 साल वनवास और एक साल अज्ञातवास में रहें। उसके बाद भी पांडव केवल यही कहते रहें- “रखो अपनी धरती तमाम… दे दो केवल पांच ग्राम” लेकिन दुर्योधन हमेशा इन शब्दों से विपरीत बातें बोलता है। वह पांडवों के बजाय सीधे श्री कृष्ण को ललकारता। हालांकि श्री कृष्ण उसकी मुर्खता को देख शांत हो जाते हैं। यहां तक कि युद्ध भूमि में भी वह सफेद घोड़ों से युक्त रथ पर सवार होते हैं। जिसे शांति का प्रतीक माना जाता है।

श्वेत रंग के माध्यम से भगवान कृष्ण अपने रथ के जरिए कौरवों को यह संकेत देना चाहते थे, कि हिसां के मार्ग को छोड़ अहिंसा के मार्ग पर आइएं। लेकिन सफेद वस्त्र पहनकर महायुद्ध में उतरने वाले कौरवों की आंखों पर महाविनाश की काली पट्टी बंध चुकी थी।

महाभारत के युद्ध में क्यों हुई पांडवों की जीत ?

करुक्षेत्र में जैसे ही पितामह भीष्म ने शंखनाद कर पांडवों को युद्ध के लिए ललकारा, वैसे ही श्री कृष्ण ने शंख बजाया और उनकी चुनौती स्वीकार की। इस युद्ध के आह्वान को पांडवों की ओर से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन जैसे बलवान योद्धा भी स्वीकार कर सकते थे। लेकिन उन सबने धर्म का साथ देते हुए खुद को श्री कृष्ण के हवाले कर दिया। भगवान कृष्ण कौरवों की ओर से पितामह के शंखनाद को अस्वीकार भी कर सकते थे। लेकिन उन्हें पता था कि भीष्म मेरे दिव्य रूप को पहचान लिए हैं। इसका प्रमाण उन्हें उसी वक्त मिल गया था। जब वह पहली बार पांडवों की ओर से हस्तिनापुर के दरबार में गए और खुद का परिचय देते हूं सबको प्रणाम किया, लेकिन उनके अभिवादन को महामहिम भीष्म ने अस्वीकार करते हुए, उनके सामने खुद अपना सिर झुका लिए थे। इसके कुछ दिनों बाद कुरुक्षेत्र में जैसे ही महायुद्ध शुरू होता है। वैसे ही पितामह भीष्म समझ जाते हैं कि, इस रण में पांडव विजयी होंगे क्योंकि उनके साथ कृष्ण के रूप में धर्म खड़ा है।