धर्मो रक्षति रक्षित:
ज्ञान, कर्म, भक्ति और योग को परिभाषित करने वाले श्रीमद्भागवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है। जिसमें धर्म और अर्धम की व्याख्या की गई है। इस शास्त्र…
भगवान कृष्ण के प्रति मीरा का समर्पण, अपने सच्चे शिष्य के प्रति एक गुरु या ऋषि का समर्पण और अपने शरीर की 7 ग्रंथियों से सात चक्रों को जागृत करना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है । यह एक ऐसा विज्ञान है और साधना जो आपके पूरे जीवन को बदलने की क्षमता रखती है । दिव्य गुप्त विज्ञान को सद्गुरु स्वामी कृणानंद जी महाराज ने अपने गुरु आत्मादास जी महाराज की अनुकंपा से प्राप्त किया और अब अपने शिष्यों तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं ।
आज भी विज्ञान के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है कि मीरा अपने शरीर के साथ कृष्ण की मूर्ति में कैसे प्रवेश कर गई… ये जो विज्ञान की उलझन है और जहां भौतिक विज्ञान की सोच अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचती है, वहीं से गुप्त विज्ञान की शुरुआत होती है।
हमारे शरीर के संस्थान 7 ग्रंथियों से जुड़े हैं, ये सभी ग्रंथियां मटर के दाने के बराबर होती हैं, जो हमारे शरीर से सात चक्रों से जुड़ी रहती है।
दिव्य गुप्त विज्ञान से मन के दैविक गुण जैसे धैर्य, सन्तोष, सहिष्णुता व प्रेम जाग जाते हैं और इस संसार में ही स्वर्ग दिखने लगता है।
अपने शरीर की 7 ग्रंथियों के माध्यम से सात चक्रों को जागृत कर हर परिस्थिति में आनन्द और सुखमय रहना ही वास्तविक लाभ है।
सेक्रेड सांइस को लेकर विज्ञान का मानना है कि हमारे शरीर के संस्थान 7 ग्रंथियों से जुड़े हैं, ये सभी ग्रंथियां मटर के दाने के बराबर होती हैं, जो हमारे शरीर से सात चक्रों से जुड़ी रहती है । जब हम ध्यान करते हैं तो हमारी बिखरी ऊर्जा एकत्रित होने लगती है फिर एकत्रित होकर ऊपर की ओर जाने लगती है। ऊर्जा को एकत्रित करने के लिए शरीर का स्थिर होना जरूरी है ताकि विचारों की लहरों को स्थिर किया जा सके। इसके लिए हम आसन और प्राणायाम का सहारा लेते हैं ताकि ध्यान साधना के दौरान हम अपने मन को निष्क्रिय करने में सफल हो सकें । दोस्तों जैसे ही हम विचारहीन हो जाते हैं वैसे ही हमारे मन में पुराने संस्कार और कर्म बंधन टूटने लगते हैं, हम आत्म प्रकाश में स्थित हो जाते हैं। मन के दैविक गुण जैसे धैर्य, सन्तोष, सहिष्णुता व प्रेम जाग जाते हैं और इस संसार में ही स्वर्ग दिखने लगता है । अपने शरीर की 7 ग्रंथियों के माध्यम से सात चक्रों को जागृत कर हर परिस्थिति में आनन्द और सुखमय रहना ही दिव्य गुप्त विज्ञान की परिभाषा है।
इस विद्या का एक रहस्य गुरुत्व भी है अर्थात जैसे ही शिष्य को पूर्ण शिष्य बनना है तो गुरु स्वयं उस विद्यार्थी में खुद को समाहित कर लेगा जैसे गुरु नानक देव, अंगद देव में प्रवाहित हुए थे वैसे ही यह विद्या भी गुरु शिष्य के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होती रहती है। यह एक ऐसी विद्या है जिसका पूर्णत : प्रयोग ऋषि मुनियों ने ही किया क्योंकि देव संस्कृति बिना पात्रता का विचार किए ही अपने शिष्यों का वरदान देते आए हैं इसलिए राक्षस और देव संस्कृति में इसका पूर्ण सदुपयोग नहीं हुआ है। जैसे भगवान शंकर ने शीघ्र ही प्रसन्न होकर भस्मासुर को वरदान दिया अर्थात् गुप्त विज्ञान प्रदान किया वह कामासक्त होकर अपने गुरु यानी भगवान शिव की पत्नी पार्वती पर मोहित हो गया और उन्हें पाने के लिए भगवान शंकर को ही भस्म करना चाहा अंत में शंकर जी को भागना पड़ा लेकिन भगवान विष्णु ने इसी विद्या के सहारे मोहिनी रूप ग्रहण किया फिर भस्मासुर को उसी विद्या से भस्म किया।
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