गुरु-शिष्य परंपरा का असली अर्थ क्या है?

RISHI PARMPRA

भारतीय साहित्य में ऋषि-परम्परा अत्यन्त पवित्र रही है। इसका प्रमाण हमें उन ऋषियों से मिलता है। जिसमें मनु, अत्रि याज्ञवल्क्य, विश्वामित्र, दधीचि, कश्यप, गर्ग, गौतम , राम, कृष्ण, कबीर के साथ नानक और रविदास भी शामिल है। ये ऐसे ऋषि है, जिन्होंने गुरुगृह में जाकर अपने ध्यान योग की पूर्णता को हासिल किए हैं।

ऋषि परंपरा को लेकर भारतीय संस्कृति में क्या कहा गया है ?

भारतीय संस्कृति गुरु शिष्य की परंपरा की रही है। इसलिए यहां ध्यान की विधि तभी सफल हो पाती है। जब कोई शिष्य अपने गुरु के सानिध्य में दीक्षा प्राप्त करता है। इस दीक्षा के तहत गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के पहले गुरु का आदेश ग्रहण करना पड़ता था। गुरु उसे तब तक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का आदेश नहीं देता था। जब तक शिष्य व्यावहारिक ज्ञान, सामाजिक ज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान, धनोपार्जन ज्ञान के साथ-साथ यौगिक ज्ञान, आत्म ज्ञान नहीं जान लेता था। आप अधिकतर समाज में लोफर टाइप के कुछ असामाजिक तत्वो को देखते होंगे। जो इधर – उधर के व्यर्थ कामों में लगे रहते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि ऐसे लोग क्यों अवारा जानवरों के समान हो जाते हैं। असल में इन लोगों को आत्म ज्ञान नहीं मिल पाता है, इन्हें एक ऐसा गुरु नहीं मिल पाता है, जो उन्हें उनकी लक्ष्यों की ओर ले जा सकें, इसलिए ऐसे लोग समाज में बोझ के समान हो जाते हैं।

भारतीय संस्कृति में ऋषि परंपरा एक अच्छे समाज के निर्माण को परिभाषित करता है, वह कभी साधु बनने और सत्संग करने को प्राथमिकता नहीं देता। हालांकि आज समाज के अधिकतर लोग जिद्दी स्वभाव के हो गए हैं। वह इसके विपरीत सोच को ज्यादा तवज्जों दे रहे हैं। उनका मानना है कि यदि आप समाज में रहते हुए दीन-हीन है, दरिद्र है, कोई प्रतिष्ठा नहीं है तो आप साधु बन जाओ और आश्रम में जाकर रहो।

हालांकि यह सोच भारतीय परम्परा के विपरीत है क्योंकि समाज में जो प्रतिभा सम्पन्न, लक्ष्मी-सम्पन्न होता है वही समाज का अगुआ बनता है। यही कारण था कि ऋषि के सामने राजा भी नतमस्तक होते थे। राजा की नीति बनाने वालों में ऋषि भी शामिल होते थे। इसका प्रमाण उस समय की शिक्षा व्यवस्था से देखने को मिलता है। जब राजा अपने राजपुत्र को एक ऋषि के आश्रम में छोड़कर निश्चिंत हो जाते थे। अब उस राजा को कुछ नहीं पता है कि, उसे आश्रम में कैसी शिक्षा दी जा रही है। लेकिन उसे इतना भरोसा जरूर है कि एक गुरु उसके बेटे को उसकी प्रतिभा के हिसाब से जरूर शिक्षित करेंगे। क्योंकि ऋषि पंपरा के तहत शिक्षा के साथ ध्यान, योग और आसन की शिक्षा भी दी जाती है। इस परंपरा की माने तो- जब तक कोई शिष्य ध्यान को को उपलब्ध नहीं होता तब तक उसे आश्रम से नहीं भेजा जाता है और न ही उसकी शादी की अनुमति दी जाती है।

मनु स्मृति की रचना को लेकर क्या कहते हैं सद्गुरु ?

आज के समाज में आप अधिकतर जाति व्यवस्था की बातें सुनते होंगे। लेकिन ऋषि परंपरा में जातिगत व्यवस्था तो थी लेकिन शैक्षिक प्रतिभा के अनुसार ही किसी इंसान को समाज में प्रतिष्ठा दी जाती थी। इन बातों आप ऋषि मनु से जुड़े कुछ संदर्भों से समझ सकते हैं। जिसके बारे में बताते हुए सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज अपनी किताब स्वर से समाधि में लिखते हैं कि-

“आज के युग में मनु का नाम सुनकर कुछ लोग चौंक जाते हैं। चौंकना लाजमी भी है क्योंकि उनके नाम पर मनुस्मृति है। मनु से ही मानव की उत्पति हुई है। जिसका मतलब एक मनन शील व्यक्ति भी होता है। लेकिन मनु स्मृति को लिखने वाले शायद मनु के भाव को समझ नहीं पाए। इसलिए उन्होंने ऐसे पवित्र ऋषि के विचार को समझे बिना ही मनुस्मृति की रचना कर दी। असल में इस स्मृति में जाति के आधार पर दंड का प्रावधान किया गया है। जो भारत की ऋषि परंपरा के बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि मनु हमेशा जाति पाति से ऊपर उठकर भागवत की बात करते थे जो सर्व धर्म समभाव का एक सार है।“

ऋषि परंपरा में सप्त ऋषियों का कैसा योगदान रहा है ?

 भारत की ऋषि परंपरा में उन सप्त ऋषियों का भी विशेष योगदान रहा है। जिनके तहत कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज का नाम आता है। इन ऋषियों को सप्त ऋषि भी कहा जाता है। जिनका उल्लेख पद्म पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण समेत कई धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। मान्यताओं के अनुसार सप्त ऋषियों की उत्पति ब्रह्मा जी की मस्तिष्क से हुई है। जिन्हें शिव जी ने गुरु बनकर इन सब को ज्ञान दिया और ये बताया कि ऋषि का मतलब सत्संग और संन्यास धारण करना नहीं बल्कि रिसर्च करना होता है।

आप अधिकतर ऋषि महत्माओं को देखते होंगे जो हाथ में कमंडल पकड़े संन्यासी का रूप धारण किए होते हैं। लेकिन एक वास्तविक ऋषि पंच तत्वो का ज्ञानी होता है। उसके अंदर हमेशा अध्यात्म के अंदर खोज करने की लालसा होती है। जिससे सनातन संस्कृति और ऋषि परंपरा को और बढ़ावा दिया जा सकें।