रामचरित मानस की चौपाई ये बताती है, जिस इंसान की जैसी भावना रहती है फलाफल वैसा ही मिलता है। इस बात को समझनी है तो आप, ब्राह्मण कौशिक से जुड़े कुछ प्रसंगों से समझ सकते हैं। जिसका जिक्र ‘उमा कहऊं मैं अनुभव अपना’ के अध्याय पाञ्चजन्य शंख में किया गया है।
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
तप में बैठे ऋषि कौशिक को क्यों आया क्रोध ?
इस प्रसंग के बारे में बताते हुए सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज अपनी पुस्तक ‘उमा कहऊं मैं अनुभव अपना’ में लिखते हैं कि- एक बार कौशिक ब्राह्मण एक पेड़ के नीचे तप कर रहे थे। इसी दौरान उनके ऊपर एक पक्षी ने अपना मल त्याग दिया। ऋषि कौशिक को इस बात पर क्रोध आया और उन्होंने उस पक्षी को मर जाने की बात कही। एक ब्राह्मण की इस वाणी के बाद वो चिड़िया पेड़ से गिरकर मर गई। हालांकि ऐसा होता देख ऋषि कौशिक काफी दुखित हुए। वह सोचने लगे कि मेरे क्रोध की वजह से एक जीव की हत्या हुई है। लेकिन उनके इस भाव में स्पष्टता नहीं दिख रही थी। उसमें अभी भी स्वार्थ की बू आ रही थी, इसी बीच मुनि ने अपने तप से उठने का फैसला किया।
एक औरत के पास क्यों पहुंचे ऋषि कौशिक ?
एक पक्षी की मौत से जुड़ी घटना को लेकर ऋषि कौशिक ज्यादा कुछ सोच पाते तभी उन्हें जोर से भूख लगी। वह भोजन की तलाश में भिक्षा मांगते हुए एक औरत के यहां पहुंचे।. ‘भिक्षां देही’ की आवाज सुन एक औरत उनकी ओर बढ़ ही रही थी कि तभी उसका पति आ गया। वह अपने पति की सेवा में लग गई। दरवाजे पर ऋषि कौशिक भिक्षा के इंतजार में खड़े थे। अपने पति की सेवा करने के बाद वो औरत अपने गुरु की सेवा करने में लगी हुई थी। घंटों इंतजार के बाद ऋषि कौशिक की धैर्यता टूट गई। वह उस औरत पर क्रोधित होते हुए तेज स्वर में बोले कि-
“हे औरत तुम्हारे अंदर शिष्टाचार नाम की चीज नहीं है, मैं घंटों से तुम्हारे दरवाज़े पर खड़ा हूं.. लेकिन तुमने अभी तक मुझे भिक्षा नहीं दिया”
ब्राह्मण की बातों को सुन उस औरत ने कहा कि- “हे मुनि मैं एक गुरुभक्त और पतिव्रता स्त्री हूं, इसलिए मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया। मेरे लिए आपको भिक्षा देने से ज्यादा अपने पति और गुरु की सेवा करना ज्यादा जरूरी है। इसलिए मैंने पहले उन कार्यों को किया, फिर आपके समक्ष भिक्षा देने आ गई”
उस स्त्री ने आगे कहा कि- “आप मुझे अपने क्रोध में जलाने का प्रयास मत कीजिए, क्योंकि मैं वो पक्षी नहीं हूं, जिसको आपने अपने क्रोध से भस्म कर दिया”
उस औरत की बातों को सुन ऋषि कौशिक आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने उनसे पूछा कि “हे देवी आप ये सब बातें कैसे जानती है…”
उस औरत ने कहा कि,” जो गुरु भक्त होता है वह दिव्य दृष्टि वाला होता है, वह सबकुछ जान जाता है” दिव्य दृष्टि से जुड़ी बातों को सुन ऋषि कौशिक के अंदर अपने गुरु की खोज की लालसा जगी। उन्होंने कहा कि- “हे देवी, जब आप ये सारी बातें मुझे बता ही दी फिर ये भी बता दीजिए कि, मेरे गुरु इस लोक में कहां मिलेंगे”
मुनि की बातों को सुन उस औरत ने कहा कि- “आप सीधे बाजार में चले जाइएं, आपको एक दुकान पर आपके गुरु मिल जाएंगे”
जब अपने कसाई गुरु से मिले ऋषि कौशिक ?
औरत की बातों को सुन ऋषि कौशिक एक बाजार में जा पहुंचे। वह एक-एक दुकान पर रुकते और हर इंसान में अपने गुरु की खोज करते। इसी बीच वह एक मांस की दुकान पर गए जहां एक मोटा आदमी मांस काट रहा था। ऋषि को ऐसा देख घिन आई और वह वहां से जाने ही वाले थे कि, तभी उस कसाई ने कहा कि- “आप जिसे ढूंढ रहे हैं वह मैं ही हूं, फर्क सिर्फ इतना है कि आप सब कुछ छोड़कर तप कर रहे थे। लेकिन मैं अपने कर्म में रहकर तपस्या कर रहा हूं”
उस कसाई की बातों को सुन ऋषि ने पूछा कि, मांस काटते हुए ये कैसी तपस्या है ?
ऋषि की बातों को सुन उस कसाई ने कहा कि- “कोई भी इंसान अपने कर्म में रहते हुए भी तप कर सकता है। यह निर्भर करता है कि, आपकी भावना कैसी है। यदि आपकी भावना उचित है, तो आपका फलाफल श्रेष्ठ होगा, लेकिन यदि आपकी भावना सही नहीं है तो आपका फलाफल श्रेष्ठ नहीं होगा”
यह एक गुरु भक्ति से जुड़ी कहानी है, जो यह बताती है कि, तप केवल एकांत में रहकर, सबकुछ त्यागकर और साधु का रूप धारण करने से नहीं बल्कि अपने नित्य कर्म को करते हुए पारिवार की सेवा के साथ भी किया जाता है। जिसका फलाफल आपकी भावना के हिसाब से प्राप्त होता है।
कहां से ली गई ऋषि कौशिक की कहानी ?
ऋषि कौशिक और उनके गुरु की खोज की यह कहानी अध्याय पाञ्चजन्य शंख से ली गई है। जो सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की पुस्तक ‘उमा कहऊं मैं अनुभव अपना’ का हिस्सा है। इस अध्याय में पाञ्चजन्य शंख के बारे में बताते हुए सद्गुरु लिखते हैं कि- अपनी भावनाओं को श्रेष्ठ और सकारात्मक रखो। महाभारत में श्री कृष्ण तो मानवता का संदेश देते हुए पाञ्चजन्य शंख फूंके थे और इस दौरान उन्होंने पांचों कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों को एकजुट किया था। इसी तरह हम भले ही अपने पांचों ज्ञानेंद्रियों को एकजुट नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें नियंत्रित करते हुए सच्ची भावना के साथ अपना कर्म तो कर ही सकते हैं।